Wednesday, July 30, 2008

Launch of Open Space Book Tasting Club

India's only Jewish Hindi novelist ever, Meera Mahadevan (nee Miriam Jacob Mendrekar), Author of Apna Ghar (1961) (Shulamith in English) - extreme left in the picture. The then Prime Minister of India, Indira Gandhi can be seen seated on the extreme right.






Open Space lauched its Book Tasting Club in Lucknow on Saturday, 26th July 2008. Its first session was held at the Academy of Mass Communication at which excerpts from two Hindi books were read out, both of which depicted the communal frenzy that followed India's partition in 1947. The following excerpt was read from the Karachi (now in Pakistan) born great Indian Jewish novelist Meera Mahadevan's (nee Mriam Jacob Mendrekar) 1961 novel Apna Ghar, the English translation of which appeared in 1975, entitled Shulamith:

हिन्दुस्तान का विभाजन हुआ, तब भी यही समस्या सामने आई। उसके पीता ने कहा था, " हमें कराची छोड़कर जाने की आवश्यकता नहीं। हमारी-उनकी लड़ाई नहीं है "

उसे याद था जब पड़ोस का इकबाल विलायत गया था और उसे वहां मुस्लिम भोजन नहीं मिला, तब वह एक इस्राइल परीवारके साथ रहने लगा। कारन यह था की इस्राइल और मुस्लमान कभी भूलकर भी सूअर का मास नहीं खाते। ईसाई अवश्य खाते हैं। इसीलिये परदेस जाकर इकबाल इस्राइलों का सौतेला नहीं, सगा भाई बन गया था।

किंतु एक दिन कराची का मन्दिर मुसलमानों ने लूट लिया। वजह क्या थे? यही की फलस्तीन में अरब और इस्राइल लड़ते हैं। लेकीन हमनें क्या कीया? हम इस्राइल अवश्य हैं, पर भार्तिये इस्राइल हैं। हमनें किसे का कुछ बीगाडा नहीं। मंगलवार का दीन था, जब उसकी बूआ दौड़ती हुई आई थीं - भाभी, भाभी, कुछ सूना तुमने?"
"क्या हुआ?"
"मन्दिर को लूट लिया।"
लूट लिया? कैसे? कोई नहीं था वहां ?"
"भाभी बहुत सारे मुसुल्मान घुस आए। हज्जान अपने घर पर था। अकेला वह क्या कर सकता था? देखते-देखते उन्होंने कीमती कालीन उठा लिये, बढिया फानूस निकाल लिए और हेखाल भी खोल दिए।"
"हेखाल खोल दिए? प्रभू- प्रभू !"
"सेफेरो पर लगाये हुए सोने के योद निकाले। जितना सोना उन पर था सारा निकाल लिया। और भाभी..." बूआ रोने लगी थीं।
"कह दे, कह दे," शूलामीथकी माँ ने आतंकित स्वर में कहा।
"भाभी, उन्होंने सारी पवीत्र पुस्तकें जाकर पखाने में दाल दीन।"
कीसी को विशवास नहीं हुआ कानों पर। जिन पुस्तकों को हम साल में एक बार गोद में लेकर नाचते हैं, जिन्हें पढ़ते समय उन पर हाथ भी नहीं रखते, जिसे चूम लेने से हमें शान्ति मिलती है, जिसके पढने पढाने से ग्यान का उदय होता है, हमारे प्रिये सफ़र तोराह आज मुसुल्मानों ने पाखाने में फेंक दिए।
यह दुखद समाचार भयंकर एजी की तरह फैल गया। सब लोग मंदीर पहुंचे। हज्जान पुस्तकों से लिपटकर रो रहा था, युवक गुस्से से काँप रहे थे मंदीर फीर से सजाया जाने लगा। हज्जान ने उपवास आरम्भ किया। कई स्त्रीयों ने उनका साथ दीया। आज मानो जमात के पिटा की मृत्यू हो गयी थी। संतोष केवाक्ल एक ही बात का था की स्थानीय मुसुल्मान इस घटना से दुखी हुए थे। उन्होंने कहा, "यह काम गुंडों का है. देश के विभाजन में उनकी बन आयी है . जब उन्हें हिन्दू भाई मिले तो कोई कोई वजह निकालकर इस्रेलो का मंदीर लूट लिया। "
(मीरा महादेवन, अपना घर, अक्षर प्रकाशन, १९६१, पृष्ठ ६४-६६)

The other book from which excerpts were read was the great Urdu Short-Story Writer Ramlal's travelogue of Pakistan Zard Patton ki Bahaar (1983):

मैं बड़ी अधीरता से नीचे लिखी हुई पंक्तिईयाँ पढने लगा:

रामलाल और तक्रीक-ऐ-पाकिस्तान. भार्तिये अदीब रामलाल ने अफ़कार कराची में अपने याद दश्तें लिखने का एक सिलसिला शुरू किया है. उसमे से एक इक्त्बास: कायद-ऐ-आज़म मुहम्मद अली जिन्नाह की क़दम क़दम कामयाबी को में बड़ी हैरत से देख रहा था और उनके पकिस्तान के हसूल को एक कारनामा भी समझने लगा था. कम्यूनिस्ट तहरीक भी पाकिस्तान के कायम की हम्नावाई कर रही थी. हमारे कई बुजुर्ग अदीबो जिनमें शाहिद अहमद दहलवी, अहमद नदीम कासमी और मुहमद हसन अस्करी शामिल थे, अपने रिसालों में कयाम-ऐ-पाकिस्तान के हक में मजामीन लिखे थे. मुताहिदा हिन्दुस्तान से जज्बाती लगाव और कौन्ग्रस के बड़े सियासी लीडरों से वालीहाना रगबत के बावजूद, जिन्होंने क़ैद-ओ-बंद की बेंदाज़ तकलीफें बर्दाश्त की थीं और अँगरेज़ हुक्मरान के साथ एक तारीखी पुरामं लड़ाई लड़ी थी. मैंने मुहम्मद अली जिन्नाह को भी अब ज़हनी तौर पर अपना लीडर तस्लीम कर लिया था और उनकी एक बहुत बड़ी तस्वीर बाज़ार से लाकर अपने घर में लगा ली थी. उसमें एक किस्म की शिकस्त का भी अहसास था और नए हालत को हकीकत पसंदी से कबूल करने का जुर्रत आमेज़ रवैय्या भी".

यह कॉलम देख कर मुझे यकबयक अहसास हो उठा की मुझे अब इस देश में मेरे पिछले बयानात और तहरीरों की ही रौशनी में देखा जाएगा। में यहाँ बयक वक़्त एक भार्तिये प्रतीनिधी और एक लेखक की हैसियत से मौजूब हूँ और मुझे अपनी इस हैसियत को किसी भी षड्नहीं भुलाना होगा। में १४ अगस्त, १९४७ के बाद यहाँ इस नयी माम्लीकत का वाकई शहरी बन कर रहना चाहता था। लेकिन पंजाब के दोनों हिस्सों के खून्रेज़ वाक्यात ने जो दोनों देशों के लिये काबू से बाहर हो गए थे ऐसा करना असंभव बना दीया। गत तैंतीस वर्षों में इस दुःख को में किसी भी पल भुला नहीं पाया था की में अपने वतन से ज़बरदस्ती सरहद के पर धकेल दिया गया था।
(रामलाल, ज़र्द पत्तों की बहार, शान्ति निकेतन प्रकाशन, लखनऊ , १९८३, पृष्ठ २४-२५)

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